नागपत्री एक रहस्य-4

मां तुम जानती हो कि मैं ऐसा नहीं कर सकता, बेशक आपका हक है मुझे सलाह देना... और अगली पीढ़ी का इंतजार करना, मैं यह भी जानता हूं, कि आपको दादा दादी का सुख देना मेरा परम कर्तव्य है, लेकिन विधाता के नियमों को बदलना मेरे बस में नहीं, आपके ही पसंद की हुई लड़की से मैंने विवाह किया, और मेरा गृहस्थ जीवन भी सुख पूर्वक चल रहा है,

                     हां, एक संतान की कमी अवश्य खलती है, और वह सिर्फ आपके लिए ही नहीं हमारे लिए भी चिंता का विषय है, प्रार्थना करिए कि सभी की इच्छाएं पूर्ण हो, लेकिन आज आप जो बात कह रही हो, यह मुझे कदापि स्वीकार नहीं। 



यह सोच लेना है कि कमी सिर्फ चंदा में है, ये नाइंसाफी होगी, यह भी हो सकता है कि कमी मुझमें हो, और आपके कहे अनुसार मैं दूसरा विवाह करके एक और जीवन बर्बाद कर दूं,     
                         चंदा के साथ सामंजस्य स्थापित होने के बाद अब मुझे और किसी के बारे में सोचने का मन नही है, जो विधाता की मर्जी होगी, वही होगा, मैं आपकी यह सलाह नहीं मान सकता, मुझे माफ कर दो कहकर दिनकर जी ने अपनी मां सावित्री देवी के सामने हाथ जोड़े और चला गया। 




पीछे खड़ी चंदा की आंखों में आंसू आ गए, अपने पति के मन में प्यार अपने लिए सम्मान और संतान की कमी सब की मिली जुली प्रतिक्रिया के रूप में उसके आंखों के आंसू बह कर गालों से टपकते हुए आंचल को गिला करने लगे। 
                         सावित्री देवी खुद चंदा को इतना चाहती थी, इसलिए उन्होंने चंदा के पास जाकर उसे गले लगाया, और कहने लगी, तुझे क्या लगता है ....क्या वाकई में दिल से ऐसा चाहती हूं, मैं जानती हूं कि तुझ जैसी बहू मिलना सौभाग्य की बात है, लेकिन मैं तुम दोनों का समाज की ओर से सुनाई जाने वाली उपेक्षाओं से नाराज हुं, इसलिए ऐसा सोचा.....



चंदा कुछ ना कहें सकी और पलट कर अपने कमरे में आकर बैठ गई, उसकी अश्रु धारा आज रुकने का नाम नहीं ले रही, क्योंकि प्रश्न उसके अस्तित्व को चुनौती देने वाला था। 
                      वह बार-बार कभी अपने और दिनकर जी के विषय में सोचती, तो कभी सास ससुर के बारे में, कभी उसे अपने माता-पिता की याद आती, तो कभी वह मन ही मन खुद ही दिनकर जी के लिए दूसरी वधू की तलाश करती, उसका मन अत्यंत ही विचलित उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर करे तो क्या करें????




वह तो बस घर की छत को आकाश की तरह निहार रही थी, ऐसा लग रहा था जैसे घर की छत को माध्यम बना किसी अलग ही दुनिया में झांकने का प्रयास कर रही है, और वह मन ही मन अत्यंत विषाद में डूबती जा रही थी, कि तभी उसे ईश्वर का स्मरण करना प्रारंभ किया।
                         क्योंकि जब संपूर्ण रास्ते बंद हो जाए, तब एकमात्र उसका ही सहारा होता है, उसने सर्वप्रथम अपने देवी-देवताओं का स्मरण किया। 



उसने एक एक कर जवाब मांगे, फिर दिनकर जी के कुल देवताओं का स्मरण किया, उनसे क्षमा याचना की, कि यदि कोई दोष हो तो क्षमा करें, 
             और फिर उसके मन में अपनी कुलदेवी का स्मरण आया, और सोचते ही अचानक वह उठ बैठी ।



हे ईश्वर यह क्या, मैं तो भूल ही गई, क्षमा करना महादेवी... अगर मुझसे कोई भूल हुई होगी तो!
               मैं अपने पारिवारिक सुख और व्यस्तता के कारण आप के दर्शन हेतु अपने पति को लेकर ना आ सके, मुझे क्षमा करना मैंने व्यर्थ इतना समय गवायां, भला आपके बिना दर्शन के कहां किसी की मंशा पूरी हो सकती है।



हे मां आप सर्वव्यापी और सब कुछ जानती हो, और मैं यह भी भली-भांति जानती हूं, कि अपनी इस नादान बच्ची की इतनी छोटी सी भूल से आप नाराज नहीं होगी,  लेकिन आपसे एक विनती है कि कुछ ऐसा चमत्कार करे कि मेरे पति खुद ही आपके दर्शन के लिए राजी हो जाए, और मैं भी इसी बहाने आपके और माता पिता के दर्शन वर्षों बाद कर पाऊं।
                              यह कहते हुए जैसे उसके मन में एक नई आशा की किरण प्रकाशित होने लगी, और अब उसके मन से सारा शोक जाता रहा, वह प्रफुल्लित हो घर के सारे कामकाज में लग गई, और पूजा पाठ में उसने अपने मन की बात सावित्री देवी को कह सुनाई।



सावित्री देवी को भी यह जानकर बड़ा दुख हुआ, कि वाकई अपने बेटे के विवाह के बाद बहू के सुख में वह भूल ही गई थी, कि वह भी किसी की बेटी है, उसे भी अपने माता-पिता की याद आती होगी, क्यों नहीं उसने अब तक उसे अपनी तरफ से दिनकर के साथ उसके मायके नहीं भेजा, 
                      लेकिन चंदा ने भी तो आज तक कभी कोई शिकायत नहीं की, सोचते हुए उसने अपनी बहू को आश्वासन दिलाया कि वह इस विषय में अपने बेटे और पति से बात करेगी,  क्योंकि बढ़ते हुए व्यापार के कारण वे दोनों ही इतने व्यस्त रहते हैं, कि बात करने का समय ही नहीं मिलता, कहते हुए उसने चंदा की बातों में सहर्ष सहमति जताई, और बड़े प्यार से गले लगा कर अपनी गलती को सहज रूप से स्वीकार करते हुए क्षमा मांगी। 



असल में चंदा उनके दूर के रिश्ते की भतीजी ही थी, जिसे उन्होंने पहली ही नजर में अपनी बहू के रूप में अपनाने का प्रस्ताव अपने पति के समक्ष रखा, और संस्कारवान और सुशील स्वभाव के सुनील जी (दिनकर के पिता) ने मुस्कुराते हुए सिर्फ इतना कहा कि बेटा आपका है, आप थोड़ी ही ना उसका हित चाहेंगे ।
             और स्त्री पक्ष को एक स्त्री से भला कौन अधिक गहराई से समझ सकता है, मैं तो सिर्फ आपको खुश देखना चाहता हूं, यदि आप चंदा को अपनी बहू बनाना चाहती हो तो मुझे कोई एतराज नहीं, और जहां तक मैं अपने बेटे को जानता हूं, तो यह कह सकता हूं कि इस विषय में वह भी मान जाएगा, फिर भी संतुष्टि के लिए एक बार आप उससे भी चर्चा करके देख लीजिए। 




सावित्री देवी ने बिना कोई देर किए उसी पल दिनकर को बुला अपनी इच्छा व्यक्त की, जिस पर आशाओं के अनुकूल दिनकर ने सिर्फ इतना ही कहा, कि आपका चयन कभी गलत ही नहीं हो सकता, और खासकर तब जब आपके बेटे का भविष्य ही उस बात पर निर्भर करता है। 
                मेरी तरफ से कभी कोई इंकार नहीं होगा, आप अपने अधिकारों का स्वंतत्र मन से उपयोग करें, मैं उसका पूर्णरूपेण वरन करूंगा। 



सावित्री मन ही मन अपने आप को अत्यंत भाग्यवान समझ रही थी , कि उसे ऐसे पति और ऐसे पुत्र की प्राप्ति हुई, कि दोनों ने ही सहजता से इतने गंभीर विषय को बड़ी सरलता से स्वीकार कर लिया , और उसे वह सम्मान प्राप्त किया जिसको लेकर बड़े-बड़े परिवारों में ना जाने कितने ही विवाद पैदा हो जाते हैं।
                           और इस तरह राजी खुशी चंदा को उसने अपने परिवार की बहू बनाया, और चंदा ने भी बखूबी अपना कर्तव्य निभाते हुए उसे उनका मान बनाए रखा।

               उसे भी इस परिवार में बेटी की तरह मान सम्मान मिला, और शायद इसी कारण दोनों ही पिछले पांच वर्ष में या भूल गए कि, कम से कम एक बार चंदा और दिनकर को चंदा के मायके और उनके कुल देवी के दर्शन के लिए भेज दिया जाए। 

क्या दिनकर चंदा के मायके में कुल देवी के दर्शन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेंगे????


क्रमशः ......

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1 Comments

Babita patel

15-Aug-2023 01:53 PM

Nice

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